Article Title |
भक्तिकालीन काव्यचिंतन के परिप्रेक्ष्य में कबीर एवं तुलसी का काव्य |
Author(s) | डॉ. प्रदीप कुमार. |
Country | |
Abstract |
भक्ति आंदोलन का उभार उत्तर भारत में तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक दिखाई पड़ता है। इसके पहले दक्षिण भारत में छठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक भक्ति आंदोलन आध्यात्मिक-धार्मिक मान्यताओं का केंद्र रहा चुका था। भक्तिकाव्य का स्वाभाविक विकास शास्त्र से लोकोन्मुखी जीवन की ओर रहा है। वृहत् स्वरूप में अवलोकन करने पर पता चलता है कि भक्तिदर्शन के मूल में शास्त्रीय भाषा संस्कृत में निबद्ध धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताएँ थी। जिसके प्रणेता शंकर, यामुन, रामानुज, रामानंद,वल्लभ, माध्व व विष्णुस्वामी इत्यादि आचार्य थे। इन आध्यात्मिक आचार्यों की शिष्य परंपरा में कबीर, नानक, रैदास, दादू, तुलसी,सूर, नंददास आदि लोकधर्मी भक्तकवि हुए । भक्तकवि शास्त्र से इतर लोक को अपनी रचनाचिंता के केन्द्र में रखते हैं। इन्होंने लोकबोली में लोकचिंता का महत् आख्यान रचा है। काव्यशास्त्रीय चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भक्तिकाव्य का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सूर,नंददास,ध्रुवदास आदि कवियों ने रस, ध्वनि, अलंकार, गुण-दोष,नायिकाभेद का विवेचन कतिपय अंशों में किया है। तुलसीकाव्य में काव्यांग का सिद्धहस्त प्रयोग दिखाई पड़ता है। कबीरकाव्य में शास्त्रीय संदर्भों के प्रयोग के विषय में हिंदी आलोचना जगत व्यापक असहमतियों की तीखी बहस का साक्षी रहा है। इन आलोचकीय मान्यताओं के इतर रचनाकेंद्रित पाठ के आग्रह पर कबीर व तुलसी के काव्य में काव्यशास्त्रीय चिंतन की क्रमशः लोक व शास्त्रीय प्रणाली का सुस्पष्ट निर्वहन देखा जा सकता है। |
Area | हिन्दी साहित्य |
Published In | Volume 2, Issue 3, July 2025 |
Published On | 24-07-2025 |
Cite This | कुमार, डॉ. प्रदीप (2025). भक्तिकालीन काव्यचिंतन के परिप्रेक्ष्य में कबीर एवं तुलसी का काव्य. Shodh Sangam Patrika, 2(3), pp. 7-17. |