| Article Title | कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल के काव्य में पर्यावरणीय चेतना | 
| Author(s) | कु. रेशमा. | 
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| Abstract | काव्य का उद्देश्य जीवन में आनंद प्रदान करना माना गया है, फिर भी काव्य में युगबोध युगचेतना के भीतर पर्यावरण के संदर्भ भी खड़े होते हैं और इसमें कवि कविता में एक नवीन और सामयिक दृष्टि की अभिव्यंजना करते हंै भले ही पर्यावरण शब्द आधुनिकता को ध्वनित करता है किंतु वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर हमारे पूर्वजों का प्रकृति व पर्यावरण से अनुराग और गहन सम्बन्धों की झलक प्राप्त होती है। प्रकृति के विभिन्न रूपों को हर युग के कवियों ने अपने साहित्य में चित्रित किया है। आज पर्यावरणविद् विश्व को बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं और इस देश के नागरिक ही नहीं अपितु साधु संन्यासियों का समुदाय भी पृथ्वी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कटिबद्ध है। उत्तराखंड का चिपको आन्दोलन, पाणी राखो आंदोलन, नदी बचाओ आंदोलन भी इस बहस का हिस्सा है। पर्यावरणविद्ों ने हिमालय और गंगा इन दो पर अपनी दृष्टि केन्द्रित की है। हिमालय को महाकवि कालिदास ने विराट रूप में देखा। हिमालय का कालिदास ने जिस सूक्ष्म व रखमयी काव्य रूप में वर्णन किया, उससे संस्कृत साहित्य ही नहीं भारतीय साहित्य व विश्व साहित्य भी सम्पन्न हुआ है। कालिदास विरचित सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ऐसे विरचित स्चनाकार सहस्त्रों वर्षों में एक ही बार होते हैं कालिदास की हिमालयी चेतना की झलक 19वीं सदी के द्वितीय दशक के अंतिम वर्षों में मन्दाकिनी घाटी में जन्मे कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल ने इस चेतना को सम्पन्न किया। आधुनिक छायावादी कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल अपनी डायरी मैं भी लिखते हंै कि ‘‘मेरी कविताओं का आधार हिमालय होगा, हिमालय के दृश्य में अपनी कविताओं में चित्रित करूँगा, मेरे पथ प्रदर्शक कालिदास हंै मुझे किसी का भय नहीं’’, सभी छायावादी कवियों ने इस दृष्टि से हिमालय और गंगा का चित्रण किया है यद्यपि उस समय पर्यावरणीय नारा तो नहीं था किंतु प्रकृति के वैभव में सृष्टि के रहस्यों का अनुभव करते हुए इन कवियों ने प्राकृतिक सत्यों का भी उद्घोष किया, गंगा एवं हिमालय दोनों को अपने साहित्य का विषय बनाया है। कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल भी इसी काव्यात्मक मुहिम का हिस्सा हैं। | 
| Area | हिन्दी साहित्य | 
| Issue | Volume 2, Issue 3 (July - September 2025) | 
| Published | 30-09-2025 | 
| How to Cite | Shodh Sangam Patrika, 2(3), 113-121. | 
 
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