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Author(s):
हर्षिता तिवारी.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
1-5 |
स्वाधीनता संग्राम में सुभद्रा कुमारी चौहान का योगदान
Abstract
सुभद्रा कुमारी चौहान एक प्रसिद्ध कवयित्री और स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने अपने साहित्य और व्यक्तिगत भागीदारी से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल यात्रा भी की, जिससे उन्होंने महिलाओं को संघर्ष में शामिल होने की प्रेरणा दी। उनकी कविताएँ, विशेष रूप से “झांसी की रानी,” ने समाज में देशभक्ति और नारी सशक्तिकरण की भावना को प्रज्वलित किया। सरल और प्रभावशाली भाषा में लिखी गई उनकी रचनाओं ने सभी वर्गों में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। सुभद्रा का साहित्य आज भी समाज को प्रेरित करता है और नारी शक्ति, साहस, और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक माना जाता है। उनकी विरासत आधुनिक युग में भी प्रासंगिक बनी हुई है और प्रेरणा का स्रोत है।
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Author(s):
दीपिका सिंह.
Research Area:
साहित्य
Page No:
6-11 |
हिन्दी दलित साहित्य: एक सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन
Abstract
हिन्दी दलित साहित्य वह साहित्यिक प्रवृत्ति है जो समाज के हाशिए पर खड़े दलित वर्गों के जीवन अनुभवों, संघर्षों और उनकी सामाजिक चेतना को अभिव्यक्त करता है। यह साहित्य पारंपरिक साहित्यिक मूल्यों और सौंदर्यानुभूति से भिन्न होकर जीवन के कटु यथार्थ, शोषण, अन्याय और असमानता के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ के रूप में उभरता है। दलित साहित्य केवल एक साहित्यिक आंदोलन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें लेखन एक हथियार बन जाता है। हिन्दी दलित साहित्य का विकास मुख्यतः 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ। हालांकि दलित जीवन की छाया लोककथाओं, किंवदंतियों और परंपरागत साहित्य में पहले से मौजूद थी, परन्तु व्यवस्थित और मुखर रूप में इसकी अभिव्यक्ति डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों और सामाजिक आंदोलन से प्रेरणा लेकर सामने आई। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’, तुलसीराम की ‘मणिकर्णिका’ और शरणकुमार लिंबाले की ‘अक्करमाशी’ जैसी रचनाओं ने हिन्दी दलित साहित्य को नई दिशा और पहचान दी। इस विषय पर शोध की आवश्यकता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह साहित्य भारतीय समाज के उस पक्ष को उद्घाटित करता है जिसे मुख्यधारा साहित्य या इतिहास में अक्सर अनदेखा किया गया है। आज जब समाज समता, न्याय और सामाजिक समरसता की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है, तब दलित साहित्य उन संघर्षों को याद दिलाता है जो अभी भी अधूरे हैं। यह साहित्य केवल दलितों की पीड़ा का दस्तावेज नहीं, बल्कि उनकी चेतना, स्वाभिमान और मानवाधिकार की मांग का प्रमाण भी है।
3 |
Author(s):
सुमित देव.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
12-17 |
हिन्दी साहित्य में गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव
Abstract
गांधीवादी विचारधारा भारतीय इतिहास, समाज और साहित्य के विकास में एक केंद्रीय भूमिका निभाने वाली विचारधारा रही है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और नैतिकता जैसे सिद्धांतों ने केवल राजनीतिक क्रांति को जन्म नहीं दिया, बल्कि सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक मूल्यों में भी गहरा परिवर्तन उत्पन्न किया। गांधी जी का प्रभाव भारतीय समाज के प्रत्येक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उन्होंने जाति प्रथा, छुआछूत, स्त्री-पुरुष असमानता और उपभोक्तावाद जैसी समस्याओं को चुनौती दी। उन्होंने भारतीयता को न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से परिभाषित किया, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से भी उसे समृद्ध किया। उनका आदर्श 'ग्राम स्वराज' भारत के नवनिर्माण का एक सशक्त प्रतीक बना। हिन्दी साहित्य, जो हमेशा से समाज का दर्पण रहा है, गांधीवादी विचारधारा से अछूता नहीं रहा। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब देश स्वतंत्रता संग्राम की आग में जल रहा था, हिन्दी साहित्यकारों ने भी अपनी लेखनी को सामाजिक बदलाव और जनजागरण का माध्यम बनाया। गांधी जी के सिद्धांतों और कार्यों से प्रेरित होकर अनेक रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य में नैतिकता, आत्मबल, असहयोग आंदोलन, खादी, और स्वराज जैसे विषयों को स्थान दिया।
4 |
Author(s):
अंजलि मिश्रा.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
18-24 |
हिंदी आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भूमिका और योगदान
Abstract
हिंदी साहित्य का इतिहास जितना व्यापक और समृद्ध है, उतना ही जटिल और विविधतापूर्ण भी है। इसकी आलोचना परंपरा का विकास विभिन्न युगों और विचारधाराओं के साथ होता रहा है। किंतु यदि हम हिंदी आलोचना के वैज्ञानिक, तर्कसंगत और आधुनिक रूप की बात करें, तो इसका श्रेय निःसंदेह आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जाता है। उन्होंने न केवल आलोचना को एक सृजनात्मक विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया, बल्कि उसे साहित्यिक विमर्श का एक सशक्त माध्यम भी बनाया। हिंदी आलोचना की जो वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ परंपरा आज हमें देखने को मिलती है, उसकी नींव शुक्ल जी ने ही रखी थी। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में हिंदी साहित्य एक संक्रमण काल से गुजर रहा था। एक ओर भक्ति आंदोलन की विरासत थी, जिसमें भावात्मकता और धार्मिकता प्रमुख थीं; दूसरी ओर नवजागरण की चेतना थी, जो साहित्य को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रश्नों से जोड़ना चाहती थी। ऐसे समय में आवश्यकता थी एक ऐसे चिंतक की, जो साहित्य को न केवल सौंदर्य के धरातल पर परखे, बल्कि उसे समाज और यथार्थ के संदर्भ में भी मूल्यांकित करे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस आवश्यकता की पूर्ति की और हिंदी आलोचना को युगबोध और समाजबोध से जोड़ा।
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Author(s):
कविता शुक्ला.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
25-33 |
हिन्दी साहित्य में आदिवासी जीवन और संस्कृति का चित्रण
Abstract
भारत एक विविधता से भरा हुआ देश है, जहाँ अनेक जातियाँ, समुदाय, भाषाएँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं। इन समुदायों में आदिवासी समाज एक महत्वपूर्ण लेकिन लंबे समय तक उपेक्षित वर्ग रहा है। आदिवासी जीवन प्रकृति से गहराई से जुड़ा होता है, परंतु औपनिवेशिक दृष्टिकोण, आधुनिकता और मुख्यधारा की राजनीति ने इनके अस्तित्व, संस्कृति और पहचान को संकट में डाला है। ऐसे में हिन्दी साहित्य, जो सामाजिक यथार्थ का आईना होता है, ने किस प्रकार आदिवासी जीवन को चित्रित किया है – यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण और समयसापेक्ष है। आज के वैश्विक और राष्ट्रीय विमर्शों में "हाशिये पर खड़े" समुदायों को केंद्र में लाने की आवश्यकता को प्रमुखता मिल रही है। इसलिए हिन्दी साहित्य में आदिवासी जीवन और संस्कृति की प्रस्तुति का मूल्यांकन करना जरूरी हो गया है कि यह चित्रण सहानुभूतिपरक है या वास्तव में उनकी आत्म-अभिव्यक्ति को स्थान देता है।