संगीत की लोक विधाओं में रसत्त्व का स्थान

Shodh Sangam Patrika

Shodh Sangam

Patrika

A National, Peer-reviewed, Quarterly Journal

  ISSN: 3049-0707 (Online)
ISSN: 3049-172X (Print)

Call For Paper - Volume - 2 Issue - 4 (October - December 2025)
Article Title

संगीत की लोक विधाओं में रसत्त्व का स्थान

Author(s) डॉ. मणिकान्त कुमार.
Country
Abstract

प्रस्तुत शोध पत्र में संगीत कला के उद्भव, स्वरूप तथा विकास की विवेचना की गई है। प्राचीनकाल में 64 कलाओं में संगीत को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। कालान्तर में ललितकलाओं को चल एवं अचल दो भागों में विभाजित किया गया, जिनमें संगीत को चल कला के अंतर्गत रखा गया क्योंकि इसकी प्रस्तुति बिना विशेष उपकरणों के सहज रूप से संभव है। भारतीय संगीत परंपरा मुख्यतः दो रूपों मार्गी एवं देसी में विकसित हुई। मार्गी संगीत धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधना से जुड़ा हुआ था, जबकि देसी संगीत जनजीवन एवं मनोरंजन का अंग बना। लोकसंगीत स्थानिक भाषा, रीति-रिवाज, त्यौहार, व्यवसाय एवं भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर विकसित हुआ और आम जनमानस की भावनाओं का सहज अभिव्यक्ति माध्यम बना। इसमें रसाभिव्यक्ति अत्यंत स्वाभाविक होती है, जैसे श्रृंगार, करुण, हास्य आदि रस। असम का बिहू, गुजरात का गरबा तथा अन्य प्रांतीय लोकनृत्य-गीत इसके जीवंत उदाहरण हैं। निष्कर्षतः लोकसंगीत अपनी सरलता, सहजता एवं नैसर्गिकता के कारण आम जनता के जीवन का अभिन्न अंग है तथा सौंदर्य एवं भावाभिव्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

Area संगीत
Issue Volume 2, Issue 3 (July - September 2025)
Published 24-09-2025
How to Cite Shodh Sangam Patrika, 2(3), 100-104.

PDF View / Download PDF File