| Article Title | ज्योतिष एवं आयुर्वेद की दृष्टी से उदर रोग | 
| Author(s) | डॉ. विजय प्रसाद रतूड़ी. | 
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| Abstract | ज्योतिषशास्त्र एवं आयुर्वेद की दृष्टि से उदर रोग डॉ. विजय प्रसाद रतूड़ी . उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी ज्योतिषशास्त्र एवं आयुर्वेद दोनों का सम्बन्ध अतिप्राचीन रहा हैं| शास्त्र में सूक्ति भी है "ज्योतिवैद्यौनिरन्तरम् " दोनों शास्त्र इस बात पर सहमत रहते हैं कि मनुष्य अपने पूर्वार्जित अशुभ कर्मों के प्रभाववश रोगी बन जाता हैं । ज्योतिषशास्त्र में जन्मकुण्डली के माध्यम से पूर्व में ही रोगों का ज्ञान किया जा सकता है, कि कब और कौन सी व्याधि होगी इस सम्बंध में कुछ बुद्धिमान लोगों की यह धारणा है कि मानव आहार विहार के कारण सुनिश्चित समय पर आहार-विहार का न होना जिससे अनेक रोग उत्पन्न होते रहते हैं। यदि मानव इन पर समुचित नियन्त्रण रखें तो वह स्वस्थ एवं दीर्घजीवी बना रहता है। परन्तु ज्यौतिषशास्त्र की मान्यता इससे कुछ भिन्न है। ज्योतिषशास्त्र अनियमित आहार-विहार को ही रोगोत्पत्ति का कारण नहीं मानता हैं । क्योंकि अधिकतम यह बात प्रत्यक्ष रूप से देखने में आती है। कि कुछ लोग नितान्त एवं अनियमित जीवन व्यतीत करते हुए भी उनका स्वास्थ्य सही रहता है। कुछ लोग निरन्तर जीवन के अभ्यासी होते हैं। वे समय के द्वारा अपने आहार-विहार का ध्यान रखते हैं। उसके बाद भी उनका स्वास्थ्य अस्वस्थ रहता है। और वे रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। यदि आहार विहार को ही रोगोत्पत्ति का कारण माना जाय तो आनुवांशिक रोग महामारी रोग एक अन्य रोगों की उत्पत्ति के कारण सही प्रकार से रोगोत्पत्ति की व्याख्या नहीं किया जा सकता है। यही एक कारण है कि आयुर्वेदशास्त्र ने रोगोत्पत्ति के कारणों का विचार करने के बाद कभी कभी पूर्वार्जित कर्मो के प्रभाव से कभी कभी दोषों के प्रकोप से और कभी कभी इन दोनों के प्रभाव से शारीरिक शारीरिकरोग (वात, कफ, पित्त) एक मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। ज्योतिषशास्त्र की यह मान्यता रही है कि प्रत्येक छोटा और बड़ा रोग पूर्वार्जित कर्मफल के रूप में रोग उत्पन्न होता है। ज्योतिषशास्त्र में जन्मसमय प्रश्नकाल एवं गोचरकाल में जो प्रतिकूल ग्रह है। उनके प्रभाववश रोगों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसी मान्यता के अनुसार किसी भी जातक की जन्मकुण्डली के आधार पर वर्षों पूर्व ही यह घोषित किया किया गया कि जातक को कब और कौन सा रोग होगा। कर्मों के प्रभाववश उत्पन्न होने वाले रोगों का विचार ज्योतिष ग्रन्थों में प्रतिपादित ग्रहयोगों के आधार पर किया जाता हैl सूर्यादिग्रह मनुष्य के शरीर के अंग धातु, एवं दोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब ग्रह अनिष्ट स्थान में स्थित होने के कारण अनिष्टप्रभावकारी हो जाता हैं, तब वह शरीर के अंग धातु एवं दोष आदि में विकार या रोग के बारे में सूचना देता रहता हैं। परन्तु जब वही ग्रह इष्ट स्थान आदि में स्थित होने के कारण इष्ट प्रभावयुक्त होता है, तब वह शरीर के अंग-धातु दोष आदि में आरोग्यता की सूचना देता हैं । | 
| Area | आयुर्वेद | 
| Issue | Volume 2, Issue 3 (July - September 2025) | 
| Published | 30-09-2025 | 
| How to Cite | Shodh Sangam Patrika, 2(3), 135-141. | 
 
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