1 |
Author(s):
डा. प्रमोद कुमार सहनी.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
1-6 |
महादेवी वर्मा की कविता में स्त्री चेतना और सामाजिक परिप्रेक्ष्य
Abstract
महादेवी वर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य के छायावादी युग की एक प्रमुख स्तंभ थी, जिनकी काव्य रचनाएँ न केवल उनकी कालजयी साहित्यिक प्रतिभा को बताती है, बल्कि समाज और स्त्री के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता और समझ का परिचय भी देती है। इनके साहित्य उनके व्यक्तिगत अनुभवो, संवेदनाओ और गहन अध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रतिफल है। उन्हांेने न केवल छायावादी साहित्य को नई ऊँचाईयों तक पहुँचाया, बल्कि अपने साहित्य के माध्यम से स्त्री के भीतर सुलगते हुए संघर्ष, वेदना ओर उसकी स्वतंत्रता की अकांक्षा को भी सामने रखा। महादेवी जी के समय का भारतीय समाज पितृसŸाात्मक विचारधारा से संचालित था, जहाँ स्त्री को मुख्यतः घर और परिवार तक सीमित माना और रखा जाता था। इस सामाजिक व्यवस्था में स्त्री के अधिकारों ओर स्वतंत्रता के बारे में सोचना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। ऐसे समय में महादेवी ने अपने कविताओं और गद्य रचनाओ के द्वारा स्त्री के मानसिक और सामाजिक संघर्षो को अभिव्यक्ति दी और उसके अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की।
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Author(s):
डॉ. प्रदीप कुमार.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
7-17 |
भक्तिकालीन काव्यचिंतन के परिप्रेक्ष्य में कबीर एवं तुलसी का काव्य
Abstract
भक्ति आंदोलन का उभार उत्तर भारत में तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक दिखाई पड़ता है। इसके पहले दक्षिण भारत में छठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक भक्ति आंदोलन आध्यात्मिक-धार्मिक मान्यताओं का केंद्र रहा चुका था। भक्तिकाव्य का स्वाभाविक विकास शास्त्र से लोकोन्मुखी जीवन की ओर रहा है। वृहत् स्वरूप में अवलोकन करने पर पता चलता है कि भक्तिदर्शन के मूल में शास्त्रीय भाषा संस्कृत में निबद्ध धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताएँ थी। जिसके प्रणेता शंकर, यामुन, रामानुज, रामानंद,वल्लभ, माध्व व विष्णुस्वामी इत्यादि आचार्य थे। इन आध्यात्मिक आचार्यों की शिष्य परंपरा में कबीर, नानक, रैदास, दादू, तुलसी,सूर, नंददास आदि लोकधर्मी भक्तकवि हुए । भक्तकवि शास्त्र से इतर लोक को अपनी रचनाचिंता के केन्द्र में रखते हैं। इन्होंने लोकबोली में लोकचिंता का महत् आख्यान रचा है। काव्यशास्त्रीय चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भक्तिकाव्य का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सूर,नंददास,ध्रुवदास आदि कवियों ने रस, ध्वनि, अलंकार, गुण-दोष,नायिकाभेद का विवेचन कतिपय अंशों में किया है। तुलसीकाव्य में काव्यांग का सिद्धहस्त प्रयोग दिखाई पड़ता है। कबीरकाव्य में शास्त्रीय संदर्भों के प्रयोग के विषय में हिंदी आलोचना जगत व्यापक असहमतियों की तीखी बहस का साक्षी रहा है। इन आलोचकीय मान्यताओं के इतर रचनाकेंद्रित पाठ के आग्रह पर कबीर व तुलसी के काव्य में काव्यशास्त्रीय चिंतन की क्रमशः लोक व शास्त्रीय प्रणाली का सुस्पष्ट निर्वहन देखा जा सकता है।
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Author(s):
प्रवीण कुमार दुबे.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
18-22 |
कमलेश्वर की कहानियो में सामाजिक चेतना : विशेष अध्ययन
Abstract
कमलेश्वर भारतीय साहित्य के एक प्रमुख कथाकार थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के विविध पक्षों को उद्घाटित किया। उनकी कहानियाँ सामाजिक विषमताओं, वर्ग संघर्ष, और मानवीय संवेदनाओं को उभारने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। उनकी कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे समकालीन समाज की उन समस्याओं को उजागर करती हैं जो आज भी हमारे समाज में विद्यमान हैं। उनका लेखन समाज को उसकी सीमाओं, समस्याओं, और संभावनाओं से अवगत कराता है और साथ ही समाज को सुधार की दिशा में सोचने पर विवश करता है। कमलेश्वर ने अपने साहित्यिक सफर में न केवल कहानियाँ, बल्कि उपन्यास, निबंध और फिल्म पटकथाएँ भी लिखीं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता और बदलाव की आकांक्षा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीबी, असमानता और संघर्ष को उजागर किया। उनकी रचनाओं में एक सामान्य व्यक्ति की जीवन की कठिनाइयाँ और संघर्ष को मानवीय दृष्टिकोण से देखा गया है, जो उन्हें हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण साहित्यकार बनाता है।
4 |
Author(s):
अखिलेश जोशी.
Research Area:
शिक्षा शास्त्र
Page No:
23-28 |
जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति का शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव का अध्ययन
Abstract
प्रस्तुत शोध में जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति का शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव का अध्ययन का अध्ययन ंिकया गया है। प्रस्तुत शोध अध्ययन के ंिलए शोधार्थी द्वारा राजस्थान के जनजातीय क्षेत्र के उच्च माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत कक्षा 9 वीं एवं 10 वी के 150 विद्यार्थियों का चयन न्यादर्श के रूप में किया गया। इस शोध कार्य में सर्वेक्षण ंिवंिध का प्रयोग ंिकया गया। प्रदत्तों के संकलन के ंिलये शोध में शोधार्थी ने संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति एवं शैक्षिक उपलब्धि के लिये स्वनिर्मित उपकरण का प्रयोग किया गया। शोध पंिरणामों से प्राप्त हुआ कि जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की संस्कृत भाषा के प्रति अभिवृत्ति में सार्थक रूप से अंतर पाया गया। जनजाति क्षेत्र के विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक रूप से अंतर पाया गया।
5 |
Author(s):
हर्ष.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
29-35 |
श्री अरविंद और भारतीय युवाओं का आत्मनिर्माण: शिक्षा, अध्यात्म और राष्ट्रवाद का त्रिकोण
Abstract
श्री अरविंद भारतीय इतिहास के एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व थे, जिनका जीवन और शिक्षाएं भारतीय युवाओं के लिए अपार प्रेरणा का स्रोत हैं। वे एक दार्शनिक, योगी, कवि, और राष्ट्रवादी नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए, और उनकी विरासत व्यक्तिगत और सामूहिक विकास के लिए गहन दिशा-निर्देश प्रदान करती है।
श्री अरविंद की शैक्षिक दृष्टि अत्यंत महत्वपूर्ण और समग्र थी। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की वकालत की, जो केवल जानकारी देने तक सीमित न हो, बल्कि संपूर्ण मानव के पोषण पर जोर दे। उन्होंने आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और नैतिक मूल्यों के विकास पर बल दिया, ताकि छात्र केवल विद्वान ही न बनें, बल्कि बुद्धिमान और दयालु नागरिक भी बन सकें। उनका उद्देश्य शिक्षा को एक ऐसा साधन बनाना था, जो आत्मविकास के साथ-साथ समाज के प्रति जिम्मेदारी का भी पाठ पढ़ाए।
श्री अरविंद ने सांस्कृतिक गर्व और वैश्विक दृष्टिकोण के महत्व को भी उजागर किया। उन्होंने भारत की विशिष्ट आध्यात्मिक विरासत में विश्वास रखा और इसे वैश्विक सभ्यता में योगदान देने की क्षमता मानते थे। वे पूर्व की आध्यात्मिक बुद्धि और पश्चिम की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने का आह्वान करते थे। उनके अनुसार, युवा भारतीय अपनी सांस्कृतिक पहचान में मजबूत रहते हुए, विश्व के साथ जुड़ने में सक्षम हो सकते हैं।
6 |
Author(s):
रेमीसा सी. यु..
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
36-40 |
एम. टी. वासुदेवन नायर का रचनात्मक द्वैत: साहित्य और सिनेमा की संगति
Abstract
प्रत्येक समाज और प्रत्येक युग की अपनी एक आत्मा होती है—एक अंतर्धारा, जो उसके सामाजिक ताने-बाने, निवासियों की आकांक्षाओं और सामूहिक अवचेतन की गहराइयों से होकर बहती है। इस आत्मा को शब्द देने, उसे आकार प्रदान करने और उसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने का गुरुतर दायित्व उस युग के महान लेखकों और कलाकारों पर होता है। वे न केवल अपने समय के संवेदनशील दृष्टा होते हैं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री की भूमिका भी निभाते हैं।जब हम बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर दृष्टि डालते हैं, तो केरल की उर्वर भूमि से एक ऐसा नाम उभरता है, जो इन सभी भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वहन करता है—माडथ थेक्केपाट्टु वासुदेवन नायर, जिन्हें साहित्यिक जगत 'एम. टी.' के नाम से जानता है। एम. टी. एक ऐसे साहित्यिक पुरोधा हैं, जिनकी लेखनी ने न केवल मलयालम भाषा को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं, बल्कि केरल के संक्रमणकालीन समाज के अंतर्मन का ऐसा जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया, जो अपनी क्षेत्रीय सीमाओं को लांघकर एक सार्वभौमिक मानवीय अनुभव में रूपांतरित हो गया। उनका कृतित्व एक विशाल वटवृक्ष की भाँति है, जिसकी जड़ें केरल की मिट्टी और मिथकों में गहराई तक धँसी हैं, और जिसकी शाखाएँ मानवीय अस्तित्व के जटिल प्रश्नों को छूने के लिए आकाश की ओर फैली हुई हैं।
7 |
Author(s):
डॉ. भूपत राम.
Research Area:
सामाजिक अध्ययन
Page No:
41-45 |
समकालीन कला अभ्यास में अपशिष्ट पदार्थों का पुनर्चक्रण: एक स्थायी सौंदर्यशास्त्र
Abstract
समकालीन भारतीय कला में अपशिष्ट पदार्थों के पुनर्चक्रण की प्रवृत्ति, केवल एक पर्यावरणीय समाधान नहीं, बल्कि एक सशक्त सांस्कृतिक और सौंदर्यशास्त्रीय वक्तव्य बन चुकी है। यह प्रवृत्ति उस कलात्मक दृष्टिकोण को उजागर करती है, जिसमें कलाकार समाज द्वारा त्याज्य घोषित वस्तुओं — जैसे प्लास्टिक, धातु, पुरानी साड़ियाँ, बर्तन, खिलौने आदि — को रचनात्मक माध्यम बनाकर कला को वैचारिक गहराई प्रदान करते हैं। यह प्रक्रिया न केवल पर्यावरणीय चेतना को स्वर देती है, बल्कि वर्ग, श्रम, स्मृति, और लिंग आधारित अनुभवों को भी कलात्मक विमर्श में लाती है। सुबोध गुप्ता, भारती खेर, मंजरी शर्मा, हरेन्द्रनाथ, चिमन डांगी, निलेश कुमार सिद्धपुरा जैसे कलाकार और ग्रामीण महिला समूह इस प्रवृत्ति के सक्रिय वाहक हैं। उनकी कृतियों में पुनर्चक्रण सौंदर्यशास्त्र के साथ सामाजिक चेतना का समन्वय भी है। यह शोध इन कलाकारों की कृतियों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है, तथा यह रेखांकित करता है कि पुनर्चक्रण अब केवल तकनीक नहीं, बल्कि एक उत्तरदायी कलात्मक दृष्टिकोण है।
8 |
Author(s):
डॉ. आभा बाजपेयी, कपिल शर्मा.
Research Area:
राजनीति विज्ञान
Page No:
46-51 |
उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष की भूमिका चौदहवीं विधानसभा से सत्रहवीं विधानसभा के विशेष संदर्भ में
Abstract
प्रस्तुत शोध में उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष की भूमिका चौदहवीं विधानसभा से सत्रहवीं विधानसभा के विशेष संदर्भ में अध्ययन किया गया है। उत्तर प्रदेश राज्य लोकसभा और विधानसभा में सबसे अधिक सीटों के साथ सबसे अधिक आबादी वाला राज्य होने के कारण भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य भयंकर प्रतिस्पर्धा, वैचारिक टकराव और बदलती मतदाता निष्ठाओं से चिह्नित है। ऐसे गतिशील माहौल में, विपक्ष की भूमिका न केवल सत्तारूढ़ सरकार पर अंकुश लगाने के रूप में, बल्कि वैकल्पिक आवाजों और नीतियों के प्रतिनिधि के रूप में भी महत्वपूर्ण हो जाती है। 14वीं से 17वीं विधानसभा (2002-2022) तक का समय उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए परिवर्तनकारी था। इस युग में प्रारंभ में गठबंधन की राजनीति का उदय, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का उदय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पतन और भारतीय जनता पार्टी का पुनरुत्थान देखा गया। इन वर्षों के दौरान विपक्ष ने सत्तारूढ़ दलों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न रणनीतियाँ अपनाईं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता में काफी भिन्नता थी। इस शोध पत्र का उद्देश्य इस अवधि के दौरान विपक्षी दलों द्वारा अपनाई गई राजनीतिक रणनीतियों का विश्लेषण करना, उनकी सफलताओं और विफलताओं पर ध्यान केंद्रित करना है। चुनावी नतीजों, विधायी प्रदर्शन और सार्वजनिक स्वागत की जांच करके, अध्ययन विपक्षी दलों के सामने आने वाली चुनौतियों और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर उनके प्रभाव को समझने का प्रयास करता है।
9 |
Author(s):
गावस्कर कौशिक.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
52-57 |
बस्तर के जनजातीय लोककथाओं में ऐतिहासिकता
Abstract
इतिहास के पुनर्निर्माण में ऐतिहासिक स्रोत के रूप में लोककथाओं का बहुत अधिक महत्व होता है। बस्तर की आदिवासी लोककथाएँ बस्तर के इतिहास और वहाँ की जनजाति संस्कृति को समझने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं।लोककथाएं अपने अन्तस् में अतीत की घटनाओं, परम्पराओं, लोकविश्वास, रीति रिवाज और सामाजिक संरचनाओं को समेटे हुए होते है।
जनजातीय लोक कथाओं में उनकी धार्मिक विश्वास, मान्यताओं ,देवी-देवताओं, और अनुष्ठानों के बारे में विशद जानकारी निहित होती हैं, जो उनके आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। लोक या मिथ कथाएँ पूरी तरह सत्य नहीं होती है, किंतु वे सत्यता के बहुत निकट जरुर होते हैं। कई बार सत्य घटनाओ में रूपक एवम कल्पना के सहारे लोककथा गढ़ दी जाती है ,जो पीढी दर पीढ़ी व्यापक स्तर में फैल जाती है। जनजातीय लोककथाओं का अध्ययन ऐतिहासिक स्रोत के रूप में कर उनके विश्लेषण से काल के गर्भ में छुपी इतिहास तक पहुंचने का प्रयास किया सकता है।
10 |
Author(s):
मुकेश कुमार.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
58-68 |
आधुनिक कुमाउँनी कविताएँ : चिंतन के विविध आयाम
Abstract
विद्वानों का मानना है कि कुमाउँनी बोली में कविताएँ 18वीं शताब्दी से लिखी जानी प्रारम्भ हुई। कुमाउँनी कवियों ने अपनी कविताओं में प्रत्येक प्रकार के चिंतन को दर्शाया है। उन्होंने पलायन, महंगाई, बेरोजगारी, नारियों की स्थिति, पर्यावरण आदि की समस्या को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। पुराने समय में लोग आपस में मिलकर काम किया करते थे अब ऐसी स्थिति नहीं है। त्यौहारों के समय लोगों में पूर्व जैसा उल्लास देखने को नहीं मिलता है। जब से पहाड़ों में पलायन बढ़ा है यहाँ के लोगों के साथ-साथ पर्यावरण की दूर्दशा हो गई है। पुरुष शराब की लत के कारण अपना सारा धनधान्य और जीवन बर्बाद कर रहे हैं। कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से यहाँ के लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है तथा बालिकाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित किया है।
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Author(s):
आकांक्षा राय, प्रो० प्रेमशंकर तिवारी.
Research Area:
हिन्दी साहित्य
Page No:
69-74 |
विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ कृत ‘माँ’ उपन्यास में चित्रित वेश्या-जीवन
Abstract
विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' प्रेमचंद युग के प्रमुख कथाकार हैं । अपने उपन्यासों में 'कौशिक' ने तत्युगीन समाज में व्याप्त स्त्री-विषयक समस्याओं का विस्तृत वर्णन किया है । वेश्यावृत्ति की समस्या उन्हीं समस्याओं में से एक है । ' माँ' उपन्यास में वेश्याओं के आडम्बरपूर्ण जीवन तथा वेश्यावृत्ति के दुष्परिणामों को दिखाकर 'कौशिक' ने पुरुष -समाज को सचेत करने का स्तुत्य प्रयास किया है । 'माँ' उपन्यास में 'कौशिक' द्वारा चित्रित वेश्या -जीवन की विशिष्टता यह है कि उन्होंने न केवल वेश्याओं के आडम्बरपूर्ण जीवन का वर्णन किया है बल्कि वेश्याओं को एक साधारण स्त्री समझते हुए उनके मनोभावों को शब्द देने का भी प्रयास किया है । 'कौशिक' की मान्यता है कि कोई भी स्त्री स्वेच्छा से पतित नहीं होती वरन् उसके ऐसा करने के पीछे बहुत से कारण होते हैं । 'कौशिक' वेश्या को हीन दृष्टि से नहीं देखते वरन् उस कर्म को हीन दृष्टि से देखते हैं, जो एक वेश्या को परिस्थितियों से विवश होकर करना पड़ता है । यही कारण है कि भाव के धरातल पर 'कौशिक' एक साधारण स्त्री व एक वेश्या में कोई अंतर नहीं रखते । एक वेश्या के मनोभावों का भी वह उतनी ही सूक्ष्मता से वर्णन करते हैं, जितनी सूक्ष्मता से एक साधारण स्त्री के मनोभावों का ।